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Sunday, June 6, 2021

शोध प्रारूप SYNOPSIS कैसे तैयार करें|| शोध प्रारूप कैसे तैयार करें? ||सि...


प्रस्तुत व्याख्यान प्रो. कलानाथ मिश्र द्वारा हिन्दी के स्नातक, स्नातकोत्तर एवं विभिन्न प्रकार के शोधरथियों को ध्यान मे रखकर निर्मित किया गया है। यह व्याख्यान अनेक विद्वानों के मत के आधार पर तथा विभिन्न पुस्तकों से सामग्री एकत्र कर बनाया गया है । आशा है यह विडिओ आपको परितोष देने मे समर्थ होगा । इस विडिओ व्याख्यान के आधार पर अनुसंधानकर्ताओं को हिन्दी मे शोध प्रारूप तैयार करने मे मार्गदर्शन और सहायता मिलेगी। अतः इसके लिए सम्पूर्ण विडिओ दो -तीन बार देखें | अपना मन्तव्य भी अवश्य टिप्पणी के रूप मे दें | इस बीच बहुत सारे शोधार्थीयों, लिटरचर के research scholar का मेरेपस फोन आया| किसी ने कहा सिर research methodology पर एक व्याख्यान दीजिए । किसी ने कहा कि सर (synopsis) बनाने का कुछ तरीका बताइए। सर मुझे research करना है। research proposal बनाने का कुछ टिप्स बताइए । पीएचडी के लिए सिनॉप्सिस तैयार कैसे करें ? मैंने सोचा कि अलग- अलग सब से बात करके समझाया तो नहीं जा सकता । ऊपर से कोरोना का समय है। मिलना संभव नहीं है। अतः मैंने शोध प्रारूप, (synopsis) बनाने के कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं, पद्धतियों को लेकर यह संक्षिप्त व्याख्यान तैयार किया है। विशेष रूप से जो हिन्दी के शोधार्थी हैं या किसी भी भाषा और साहित्य के शोधार्थी / रिसर्च scholar हैं उन सबको ध्यान मे रखकर यह व्याख्यान तैयार किया गया है । तो आइए सीखते हैं शोध अथवा अनुसंधान के लिए प्रारूप, रूप-रेखा तैयार करने का सटीक तरीका । तो आइए जानते हैं Ph.D synopsis कैसे लिखें ? अंग्रेजी के रिसर्च शब्द के लिए हिंदी में अन्वेषण, गवेषणा, अनुसंधान, शोध आदि अनेक शब्द प्रचलित हैं । किंतु ‘अनुसंधान’ शब्द शोध की अपेक्षा अधिक व्यवहार में आता है। यहाँ हम डॉ हरिश्चंद्र वर्मा द्वारा दिए गए एक सर्व समावेशी परिभाषा उद्धृत कर “शोज्ञ निर्देशक के निर्देशन में शोध प्रविधि का सम्यक पालन करने वाले प्रतिभाशाली शोधार्थी द्वारा किसी निश्चित विषय पर किया गया वह दृष्टि संपन्न विश्लेषण विवेचन है, जिसमें तथ्य अनुसंधान के स्तर पर अज्ञात तथा अल्प ज्ञात तथ्यों का अन्वेषण एवं भ्रांत ज्ञात तथ्यों का संशोधन अभीष्ट है। सत्यान्वेषण के स्तर पर तथ्यों का वर्गीकरण एवं विश्लेषण के आधार पर निर्भ्रांत निष्कर्षों या सत्यों तक पहुंचने की वस्तुनिष्ठ एवं तर्क सम्मत साधना समाहित है।“ शोध के प्रमुख तत्व इस प्रकार है – 1. नवीन तथ्यों की खोज (discovery of new facts) 2. तथ्यों की नवीन ढंग से व्याख्या करना अभीष्ट है। (Fresh approach towards interpretation of facts) 3. शोध में तथ्यों का समीक्षात्मक परीक्षण और निर्णय क्षमता आवश्यक है। (Capability of critical examination and judgement of facts) 4. शोध-प्रबंध की प्रस्तुति के लिए विशिष्ट उपस्थापन शैली। (distinctive presentation of facts or findings) कुछ महत्वपूर्ण बिन्दु इस संबंध मे जानना जरूरी है - 1. स्पष्ट और व्यवस्थित रूप रेखा निर्मित करने के लिए यह आवश्यक है कि चयनित विषय का स्वरूप स्पष्ट और असंदिग्ध हो। 2. कई बार ऐसा देखा जाता है कि शोधार्थी अनुभव के अभाव में ऐसे विषय का चयन कर लेते हैं जिनकी सीमा निर्धारित नहीं होती है। जिसके कारण अनावश्यक विस्तार शोध में हो जाता है। 3. अतः शोध विषय का क्षेत्र निश्चित और सीमित हो। 4. उस विषय -क्षेत्र का मंथन एक विषय केंद्रित दृष्टि से होना चाहिए। यह सामग्री के प्रकार - I. शोध क्षेत्र की मूल सामग्री। II. मूल सामग्री से संबंधित सहयोगी ग्रंथ। III. शोध से संबंद्ध समालोचना ग्रंथ। IV. शोध से संबंध सैद्धांतिक अथवा शास्त्रीय ग्रंथ। V. शोध से संबंधित अन्य सामग्री 1. प्रस्तावना भाग प्रस्तावना शोध का प्रारम्भिक भाग है। प्रस्तावना लिखते समय इन बातों का ध्यान रखना आवश्यक है । i. विषय चयन की प्रेरणा (कहाँ से मिली कैसे मिली ?) ii. सामग्री संकलन । विषय से संबंधित कोण कोण सी सामग्री मिली ? iii. विषय वस्तु का विवेचन एवं विषय का महत्व । iv. शोध की दृष्टि एवं दिशा । v. शोध कार्य की परिसीमा । vi. शोध प्रविधि । vii. विषय पर पूर्व मे किएगे कार्य का विवरण। viii. शोध कार्य की प्रासंगिकता । ix. शोध प्रबंध की विशेषताएं । 2. शोध विषय का मध्य भाग I. विषय से संबंधित विभिन्न अध्यायों का निर्धारण। II. चयनित अध्याय के अनुसार शीर्षक / उप-शीर्षक बनाना । III. तथ्य निरूपण। IV. अध्याय के अनुकूल विषय का सम्यक विश्लेषण। V. विभिन्न अध्यायों के बीच तरतम्यता/ एकसूत्रता । 3. उपसंहार (निष्कर्ष) i. शोध -सारांश (पूरे शोध प्रबंध का सार) ii. सभी अध्यायों का सार । iii. शोध मे निहित केन्द्रीय तत्व । iv. संक्षिप्तता । 4. परिशिष्ट i. आधार ग्रंथ ii. संदर्भ ग्रंथ iii. आलोचनात्मक ग्रंथ iv. पत्र-पत्रिकाएं (शोध पत्रिका) v. रिपोर्ट, संस्मरण vi. Gajetiyar गजेटियर vii. साक्षात्कार (यदि हो) viii. शब्दकोश तथा विश्वकोश ix. इंटरनेट श्रोत https://www.youtube.com/watch?v=urlkU1PMhOM&t=23s https://www.youtube.com/watch?v=UxRASPyaGMc&t=73s https://www.youtube.com/watch?v=MHWfKB9IK1s&t=106s https://www.youtube.com/watch?v=LXINe9kQUT8&t=67s https://www.youtube.com/watch?v=bCIckTlzdXE&t=100s https://www.youtube.com/watch?v=f2V33LH9_mU&t=47s https://www.youtube.com/watch?v=WXeneTiImxk&list=PLFUfzsHkGIgOy613oLfiE5uFi3rg60Xai https://www.youtube.com/watch?v=IoLIQhAKr_8&t=1s https://www.youtube.com/watch?v=m9OWmEesimM&t=1655s https://www.youtube.com/watch?v=0lGYsJxhXms&t=6s https://www.youtube.com/watch?v=US9J1b6mEPM&list=PLFUfzsHkGIgP8KFUP5V9PJF3hDjJpgl5H

Sunday, May 23, 2021

भाषा की उत्पत्ति का सिद्धांत|| भाषा की उत्पत्ति || प्रो कलानाथ मिश्र ||...

भाषा की उत्पत्ति के सिद्धांत
मानव ने श्रृष्टि में व्याप्त ध्वनियों को अपने अहर्निष प्रयास, अभ्यास तथा प्रतिभा से शब्द संकेतों में परिवर्तित कर ऐसी श्क्ति अर्जित की जिसके बल पर वह किसी वस्तु को ही नहीं अपितु अषरीरी भाव और बोध को भी रूपायित कर लिया। भाषा में अ˜ुत शक्ति समाहित है। ‘भाषा मानव की सबसे रहस्यमय तथा मौलिक उपलब्धि है।’ भाषा का प्रष्न,महादेवी वर्मा
शब्द और विचार एक दूसरे से इस प्रकार जुड़े रहते हैं कि उनको अलग-अलग नहीं किया जा सकता। मनुष्य के मानस, मस्तिष्क में नित नए विचारांे का जन्म समुद्र की उर्मिल तरंगों की भाँति होता रहता है। सोचिये यदि भाषा की शक्ति नहीं होती तो क्या होता? गूँगे का गुर। इसप्रकार भाषा की उत्पत्ति का सिद्धांत मानव की भावाभिव्यक्ति  से जुड़ा है। इस तरह सभ्यता के विकास के साथ ही मनुष्य को भाषा की आवश्यकता महसूस हुई। अपने परिवेष समुदाय के बीच उसने कुछ अस्फुट ध्वनियों का उच्चारण प्रारंभ किया होगा। अतः भाषा की उत्पत्ति से आशय उस काल से है जब मानव ने बोलना आरम्भ किया और ‘भाषा’ सीखना आरम्भ किया होगा। हमारे समाज की प्रगति यात्रा इसी से जुडी है अतः पूरे विष्व के चिंतकों की जिज्ञासा इस बात को लेकर थी कि आखिर भाषा की उत्पत्ति कैसे हुई। इन्हीं विचारों, अनुसंधानो के आधार पर भाषा की उत्पत्ति का सिद्धांत निरूपित किया गया है। 
भाषा की उत्पत्ति के विषय में विद्वानों ने दो प्रकार के विचार/मार्ग अपनाए हैं। भाषोत्पत्ति के अध्ययन का यही दो मुख्य आधार हैं। 
(१) प्रत्यक्ष मार्ग -
(२) परोक्ष मार्ग- भाषा की आज की विकसित दशा से पीछे की ओर चलते हुए उसकी आदिम अवस्था तक पहुंचने का प्रयास किया जाता है।
प्रत्यक्ष मार्ग
जिसमें भाषा की आदिम अवस्था से चल कर उसकी वर्तमान तक विकसित दशा का विचार किया जाता है।
1. दिव्योत्पति सिद्धांत।
2. धातु सिद्धांत।
3. संकेत सिद्धांत।
4. अनुकरण सिद्धांत।
5. अनुरणन सिद्धांत।
6. श्रम परिहरण सिद्धांत।
7. मनोभावसूचक सिद्धांत।
8. विकासवाद का समन्वित रूप।

दिव्योत्पत्ति सिद्धांत।
दिव्योत्पति सिद्धांत।
भाषा की उत्पत्ति के संबंध में यह सबसे प्राचीन सिद्धांत है। और इस सिद्धांत को मानने वाले भाषा को ईश्वर का वरदान मांगते हैं। देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति।। (ऋग्वेद-8.100.11) अर्थात् देवलोग जिस दिव्य वाणी को प्रकट करते हैं, साधारण जन उसी को बोलते हैं। दिव्योत्पत्ति के सिद्धांत को मानने वाले न तो भाषा को परंपरागत मानते हैं और न मनुष्यों द्वारा अर्जित ही। मनुष्य की चेतना किसी अलौकिक सूत्र से बंधी हुई है। यह अखिल ब्रह्मांड उस ईश्वर का विशाल दर्पण है। अतः यह भी धारणा बनी कि ‘वाणी दैविक शक्ति का वरदान है।’ अपने सिद्धांत के समर्थन में विभिन्न धर्म ग्रंथ का उदाहरण देते हैं। संस्कृत को ‘देवभाषा’ कहने में इसी का संकेत मिलता है। इसी प्रकार पाणिनी के व्याकरण ‘अष्ब्टाध्यायी’ के 14मूल सूत्र महेश्वर के डमरू से निकले माने जाते हैं। बौद्ध लोग ‘पालि’ को भी इसी प्रकार मूल भाषा मानते रहे हैं। उनका विश्वास है कि भाषा अनादि काल से चली आ रही है। भाषा का यह सिद्धांत बहुत मान्य नहीं हुआ। भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में दैवी सिद्धान्त तर्कसंगत नहीं है। तर्क है कि भाषा ईश्वर प्रदत्त होती संसार के सभी लोग एक ही भाषा बोलते, परंतु ऐसा नहीं है। 
धातु सिद्धांत-
भाषा की उत्पत्ति के संबंध मंे यह दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धांत है। इस सिद्धान्त के मूल विचारक ‘प्लेटो’ थे। इसके बाद जर्मन प्रोफेसर ‘हेस’ ;भ्मलेमद्ध ने अपने एक व्याख्यान में इसका उल्लेख किया था। बाद में उनके शिष्य डॉ॰ स्टाइन्थाल ने इसे मुद्रित करवा कर विद्वानों के समने रखा। मैक्समूलर ने भी पहले इसे स्वीकार किया किन्तु बाद में व्यर्थ कहकर छोड़ दिया। इस सिद्धान्त के अनुसार संसार की हर चीज की अपनी एक ध्वनि है। यदि हम एक डंडे से एक काठ, लोहे, सोने, कपड़े, कागज आदि पर चोट मारें तो प्रत्येक में से भिन्न प्रकार की ध्वनि निकलेगी। ऐसी असंख्य ध्वनियाँ हो सकती हैं परन्तु इनमें से कुछ रह गए। इन्हीं से भाषा की उत्पत्ति हुई। इस सिद्धांत पर विद्वानों की आपत्ति है। इस सिद्धान्त की निस्सारता या अनुपयोगिता के कारण ही मैक्समूलर ने इसका परित्याग किया था। उान्हों ने निम्नलिखित तर्क दिए -
इस सिद्धान्त के अनुसार आदि मानव में नये-नये धातु बनाने की सहज शक्ति का होना कल्पित किया गया है जिसका कोई प्रामाणिक आधार नहीं है।
यह सिद्धान्त शब्द और अर्थ में स्वाभाविक सम्बन्ध मान कर चलता है किन्तु यह मान्यता निराधार है।
इस सिद्धान्त के अनुसार सभी भाषाएँ धातुओं से बनी हैं

संकेत सिद्धांत
विश्व के भाषाविज्ञानी यह स्वीकार करते हैं कि मनुष्य के पास जब भाषा नहीं थी, तब वह संकेतों से अपनी विचारों की अभिव्यक्ति करता था। इस सिद्धांत को इंगित सिद्धांत भी कहा जाता है। इसका सर्वप्रथम संकेत करने वाली पॉलिनेशियन भाषा के विद्वान डॉक्टर ‘गये’ थे। इन्होंने भाषा की उत्पत्ति संकेतों के द्वारा सिद्ध की। आईसलैंड भाषाओं के विद्वान अलिकजैण्डर जोहान्स ने भी भारोपीय भाषाओं का अध्ययन कर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भाषा की उत्पत्ति संकेतों से हुई है। मनुष्य प्रारंभ में हाथ, पैर और सिर आदि को विशेष प्रक्रिया से हिलाकर भावाभिव्यक्ति करता रहा होगा परवर्ती काल में जब इससे काम नहीं चला होगा, तो उसने सामाजिक समझौते के आधार पर विभिन्न भावों तथा वस्तुओं के लिए संकेत निश्चित किए होंगे। इस सिद्धांत के अनुसार सर्वप्रथम मनुष्य बंदर आदि जानवरों की तरह अपनी इच्छाओं की अभिव्यक्ति भाव बोधक ध्वनियों के द्वारा करता होगा। फिर उन्होंने विभिन्न जीव-जंतुओं की ध्वनियों का अनुकरण कर शब्द बनाए होंगे। और फिर उसने अपने संकेतों के अंगों के द्वारा उन ध्वनियों का अनुकरण किया होगा। 
यह सिद्धांत भाषा विकास की आरंभिक स्थितियों पर प्रकाष डालता है। किन्तु अपने आप में कुछ विसंगतिओं को साथ लेकर चलता है। आज के भाषाविज्ञानी इस सिद्धांत के विषय में पहला तर्क यह देते हंै कि 
मनुष्य यदि भाषाविहीन प्राणी था तो उसे संकेतों से काम चलाना कैसे आ गया? फिर संकेत भाषा कैसे बनी ? 
दूसरा संशय यह भी है कि यदि पहली बार मानव समुदाय में किसी भाषा का विकास करने के लिये कोई महासभा बुलाई तो उसमें संकेतों का मानकीकरण किस प्रकार हुआ। 
और अंतिम आशंका इस तथ्य पर की गई कि लोक व्यवहार के लिये जिन संकेतों का प्रयोग किया गया, वे इतने सक्षम नहीं थे कि उससे भाषा की उत्पति हो जाती।
अनुकरण सिद्धांत
इस सिद्धांत के अनुसार भाषा की उत्पत्ति अनुकरण के आधार पर हुई है। इस सिद्धांत के मानने वाले विद्वानों का तर्क है कि मनुष्य ने पहले अपने आसपास के जीवों और पदार्थों की ध्वनियों का अनुकरण किया होगा और फिर उसी आधार पर शब्दों का निर्माण किया होगा। उदाहरण के लिए कांव-कांव ध्वनि निकालने वाले पक्षी को संस्कृत में काक हिंदी में कौआ अंग्रेजी में बतवू पड़ा। बिल्ली की म्यांउ के आधार पर चीनी भाषा में बिल्ली को मियाउ कहा जाने लगा। इस सिद्धांत के अंतर्गत तीन प्रकार के अनुकरण रखे जा सकते हैं-
(क) ध्वन्यात्मक अनुकरण 
(ख) अनुरणात्मक अनुकरण 
(ग) दृष्यात्मक अनुकरण।
यह सिद्धांत भाषा की उत्पत्ति पर आंशिक रूप से ही प्रभाव डालता है किसी भाषा के समस्त शब्दावली का निर्माण अनुकरण के आधार पर नहीं हो सकता।
अनुरणन सिद्धांत
यह सिद्धांत भी अनुकरण सिद्धांत से मिलता जुलता है। बहुत जगह अनुकरण सिद्धांत के अंतर्गत ही इसे भी रखा गया है। अनुकरण सिद्धांत से इसमें अंतर बस इतना है अनुकरण सिद्धांत में चेतन जीवों के अनुकरण की बात थी, वहीं अनुरणन में निर्जीव वस्तुओं के अनुकरण की बात है। भाषावैज्ञानिकों ने रणन सिद्धांत की व्याख्या करते हुये यह स्पष्ट किया कि प्रत्येक वस्तु के भीतर अव्यक्त ध्वनियाँ रहती हैं। प्लेटो व मैक्सीकुलर ने इस सिद्धांत को आधार बनाकर भाषा के जन्म का प्रायोजन सिद्ध किया था। उदाहरण के लिये किसी भारी वस्तु से किसी दूसरी वस्तु पर आघात किया जाय तो कुछ ध्वनियाँ निकलती है। बिना देखे भी मनुष्य आसानी से जान सकता है कि किस वस्तु या किस धातु की कौन सी ध्वनि है। उदाहरण के लिए नदी की कलकल घ्वनि के आधार पर उसका नाम कल्लोलिनी पड़ गया। इस प्रकार ध्वनि के आधार पर झनझनाना, तड़तड़ाना, लड़खड़ाना, बड़बड़ाना जैसे शब्द बने। अंग्रेजी में उनतउनतए जीनदकमतए आदि। अनुकरण सिद्धांत इस सिद्धांत में भी कई त्रुटियाँ हैं। इस सिद्धांत में यह प्रमाणित किया गया है कि ध्वनियों से शब्द बने। लेकिन यह सिद्धांत भी अपने आप में अधूरा है क्योंकि, संसार की सभी भाषाओं में केवल ध्वनिमूलक शब्द नहीं हैं।
श्रम परिहरण सिद्धांत (यो-हो-हो सिद्धांत)
इस सिद्धांत के जन्मदाता छवपतम न्वायर थे। परिश्रम करना मनुष्य की स्वाभाविक विशेषता है। कठिन परिश्रम करते समय विषेष कर जब मनुष्य सामूहित श्रम करने लगता है तब थकान को दूर करने के लिए कुछ ध्वनियों का उच्चारण करता है। इसप्रकार श्रमिक श्रम परिहार किया करते हैं। सांसे तेज होने से के परिणाम स्वरुप मनुष्य के स्वरतंत्रियों में कपंन होने लगती है। तदनुककूल कई प्रकार की ध्वनियाँ आने लगती है। उदाहरण के लिए कपड़ा खींचने वाले धोबी हियो, छियो आदि ध्वनि निकालते हैं। मल्लाह ये हो हो ध्वनि निकालते हैं। क्रेन आदि पर काम करने वाले मजदूर हो-हो की तरह का ध्वनि निकालते हैं। इस सिद्धांत के मानने वाले इन्हीं ध्वनियों के आधार पर भाषा की उत्पत्ति मानते हैं। 
किन्तु इस सिद्धांत पर विद्वानों का आक्षेप है कि ऐसी ध्वनियाँ बहुत अल्प हैं। इनके आधार पर भाषा की उत्पत्ति मानना उचित नहीं है। 
आवेग से उत्पन्न ध्वनियाँ निरर्थक हैं और निरर्थक ध्वनियों द्वारा किसी सार्थक भाषा को विकसित कैसे किया जा सकता है।
ये ध्वनियाँ केवल शारीरिक श्रम को व्यक्त कर पाती है, भावों और विचारों की इनमें कोई अभिव्यक्ति नहीं होती।
इसमें जो शब्द हैं वे इतनी अल्प संख्या में हैं कि उन्हें सम्पूर्ण भाषा के विकास का आधार नहीं बनाया जा सकता।
मनोभावसूचक सिद्धांत।
मनोभाव सूचक सिद्धांत मनुष्य की विभिन्न भावनाओं की सूचक ध्वनियों पर आधारित है। प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक मैक्समूलर ने इसे पुह-पुह सिद्धांत कहा है। इसे आवेग सिद्धांत भी कहा जाता है। अंग्रेजी में इसे चववी.चववी कहते हैं यह नाम मैक्यमूलर ने मजाक में दिया था। मनुष्य भावप्रधान प्राणी है। उसके मन में दुख, हर्ष, आश्चर्य, क्रोध, घृणा, करूणा आदि अनेक भाव उठते हैं। इन भावों को ध्वनियों के उच्चारण के द्वारा प्रकट करता है। प्रसन्न होने पर ‘अहा’ दुखी होने पर ‘आह’ आश्चर्य पड़ने पर ‘अरे’ जैसी ध्वनियों का उच्चारण करते हुए उसने भाषा की उत्पत्ति हुई। इसलिये इस सिद्धांत की भी अपनी सीमा है।
भाव-व्यंजक शब्दों को वाक्य के पहले अलग से जोड़ा जाता है वे हमारी भषा का मुख्य अंग या सम्पूर्ण अस्तित्व नहीं है।
भाषा सोच विचार कर उत्पन्न की गई ध्वनियों का व्यवस्थित रूप है परन्तु ये आवेशजनित निकलने वाले शब्द विचार और व्यवस्था से रहित होते हैं। 
इस प्रकार के शब्दों की संख्या किसी भी भाषा में इतनी थोड़ी होती है कि उसके आधार पर सम्पूर्ण भाषा के निर्माण की कल्पना नहीं की जा सकती 

विकासवाद का सिद्धांत (समन्वित रूप)
1. भाषा की उत्पत्ति की खोज का यह सर्वाधिक माननीय सिद्धांत है। पिछली सदी के प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक ‘स्वीट’ उपयुक्त सिद्धांतों में से कुछ के आधार पर भाषा की उत्पत्ति पर प्रकाश डाला। उनके अनुसार भाषा प्रारंभिक रूप में ‘भाव-संकेत’ या इंगित;ळमेजनतमद्ध और ‘ध्वनि- समवाय’ ;ैवनदक हतवनचद्ध दोनों पर आधारित थी। ‘ध्वनि- समवाय’ ;ैवनदक हतवनचद्ध के आधार पर ही शब्दों का आगे विकास हुआ। स्वीट भाषा के उपयुक्त सिद्धांत के कुछ अनुकरणात्मक ;प्उपजंजपअमद्ध 
 सिद्धांतों को लेकर इनके समन्वित रूप में भाषा की उत्पत्ति की है। यह तीन प्रकार है-

1.अनुकरणात्मक ;प्उपजंजपअमद्ध 
2. मनोभाव सूचक ;प्दजमतरमबजपवदंसद्ध और 
3. प्रतीकात्मक ;ैलउइवसपबद्ध
आइए यहाँ हम इन तीनों पर संक्षेप में विचार कर देते हैं-
(क) पहले प्रकार के शब्द अनुकरणात्मक ;प्उपजंजपअमद्ध थे अर्थात दूसरी जीव-जंतुओं की ध्वनियों का अनुकरण करके मनुष्य ने जो शब्द बनाए थे, जैसे चीनी का ‘मियाऊ’ं बिल्ली की म्याऊं ध्वनि के आधार पर बना। इसी प्रकार कौए के बोलने के ध्वनि के आधार पर संस्कृत में ‘काक’ और हिन्दी में ‘कौआ’नाम पर गया। 
(ख) स्वीट के अनुसार भाषा की प्रारंभिक अवस्था की दूसरी प्रकार के शब्द मनोभाव सूचक थे। इसे मनोभावाभिवयंजक प्दजमतरमबजपवदंसद्ध  भी कहते हैं। मनुष्य अपने अंतर्मन की भावनाओं को प्रकट करने के लिए इस प्रकार की ध्वनियों का उच्चारण करता होगा और कालांतर में वही ध्वनियाँ भावों को सूचित करने वाले शब्दों के रूप ले लिए होंगे। व्याकरण में विस्मयादिबोधक के अंतर्गत रखे जाने वाले शब्द इसी श्रेणी के हैं। जैसे आह!, वाह! हाय, अरे आदि।
(ग) तीसरे प्रकार के शब्दों को स्वीट ने प्रतीकात्मक ;ैलउइवसपबद्ध कहा है। प्रतीकात्मक शब्दोंऐसे शब्दों से है जो मनुष्य की विभिन्न संबंधों से जैसे खाना-पीना हंसना बोलना आज और विन सर्वनाम हूं जैसे यह वह मैं तुम आदित्य प्रतीक बन गए हैं। भाषा के प्रारंभिक शब्द समूह में ऐसे शब्दों की संख्या बहुत रही होगी और इसमें अनेक प्रकार की शब्द रहे होंगे बाद में यह छट गए होंगे। प्रतीकात्मक उसे कहते हैं जिनका संयोग से या अत्यंत सामान्य और पूरे संबंध से किसी और से संबंध हो जाता है और वह उनका प्रतीक बन जाता है। उदाहरण के लिए बच्चे इसी प्रकार मामा, पापा, बाबा जैसे शब्द बहुत छोटी अवस्था में बोलने लगते हैं। मां-बाप उनका संबंध या अपने लिए समझ लेते हैं। इस प्रकार उनका नामकरण हो जाता है। अंग्रेजी में भी उंउउंए चंचंए उवजीमतए ंिजीमतए इतवजीमतएकंकल आदि शब्द हैै। इसी प्रकार लैटिन, जर्मन, इटैलियन आदि में भी ऐसे शब्द मिल जाएंगे। 
इस प्रकार स्वीट के अनुसार भाषा की उत्पत्ति भावाभिव्यंजक, अणुकरणात्मक, तथा प्रतीकात्मक शब्दों से शुरू हुई। उपचार के (अर्थ ज्ञात) तथा प्रयोग प्रवाह के कारण बहुत से शब्दों का अर्थ विकसित होता गया नए नए शब्द बनते गए।
भाषा की उत्पत्ति के प्रत्यक्ष मार्ग के अंतर्गत विकासवाद का सिद्धांत अधिक उचित प्रतीत होता है इसीलिए यह अन्य सिद्धांतों की अपेक्षा अधिक मान्य है।
परोक्ष मार्ग 
भाषा की आज की विकसित दशा से पीछे की ओर चलते हुए उसकी आदिम अवस्था तक पहुंचने का प्रयास किया जाता है। भाष उत्पत्ति के सिद्धांत के विवेचन का प्रत्यक्ष मार्ग की चर्चा हमने की। अब आईए संक्षेप में परोक्ष मार्ग की चर्चा भी कर लेते हैं। इस मार्ग के अंतर्गत भाषा की उत्पत्ति का अध्ययन करने की दिशा उल्टी हो जाती है। भाषा के वर्तमान रूप को ध्यान में रखते हुए हम अतीत की ओर चलते हैं। इस मार्ग के अंतर्गत अध्ययन की तीन विधियां हैं-
1. शिशुओं की भाषा 
2. असभ्य जातियों की भाषा 
3. आधुनिक भाषाओं का ऐतिहासिक अध्ययन 
शिशुओं की भाषा कुछ भाषा वैज्ञानिकों का विचार है शिशु के द्वारा प्रयुक्त शब्दों के आधार पर हम भाषा की आरंभिक अवस्था का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। शिशु की भाषा वाह्य प्रभावों से इतना प्रभावित नहीं रहती जितने कि मनुष्य की भाषा। इसलिए बच्चों की भाषा के अध्ययन से यह पता लगाया जा सकता है भाषा की उत्पत्ति किस प्रकार हुई होगी। भाषा की उत्पत्ति का यह सिद्धांत महत्वहीन है। क्योंकि शिशुओं की भाषा अनुकरण पर आधारित है। शिशु अनुकरण से सीखता है। वह एक बनी बनाई भाषा की बोलता है। इसलिए वह कोई नई भाषा नहीं पढ़ता है। 
असभ्य जातियों की भाषा 
कुछ भाषा वैज्ञानिक यह मानते हैं कि भाषा की उत्पत्ति संसार की असभ्य तथा अत्यंत पिछड़े जातियों/लोगों द्वारा प्रयुक्त भाषाओं के अध्ययन/ विश्लेषण के द्वारा की जा सकती है असंभव चुकी संसार के सभी क्षेत्रों में होने वाले परिवर्तनों के प्रभाव से बचे हुए हैं अतः उनकी भाषा भी परिवर्तनों से प्रभावित नहीं होती इसीलिए उनकी भाषाओं के अध्ययन और विश्लेषण से आशा की प्राथमिक अवस्था का पता चलता है।
यह ठीक है यह सिद्धांत भाषा के प्रारंभिक रूप का एक सीमा तक परिचय अवश्य दे सकता है परंतु पूर्ण रूप से आदिम स्वरूप का ज्ञान नहीं करा सकता क्योंकि जिन्हें हम असभ्य भाषा कहते हैं वह सभ्य भाषाओं से कुछ ही पीढ़ी पुरानी होगी।
आधुनिक भाषाओं का ऐतिहासिक अध्ययन 
भाषा की उत्पत्ति की खोज का एक आधार भाषाओं का ऐतिहासिक अध्ययन भी है। इस सिद्धांत के अनुसार हम एक वर्तमान भाषा को लेकर प्राप्त सामग्री के आधार पर भाषा के इतिहास की खोज करते हैं। इस खोज में हम अतीत की ओर लौटते हैं। भाषा के आरंभिक दशा के विषय में कुछ जानने का सबसे सीधा और अच्छा और महत्वपूर्ण पद है। उदाहरण के लिए यदि हम हिंदी (खड़ी बोली) इसके अध्ययन के उपरांत पुरानी हिंदी, अपभ्रंष, प्राकृत, पाली, संस्कृत और वैदिक संस्कृत का अध्ययन कर सकते हैं। खड़ी बोली की तुलना वैदिक संस्कृत से ध्वनि व्याकरण के रूप शब्द समूह वाक्य आज के विचार से करके यह पता अवष्य कर सकते हैं कि खड़ी बोली तक आते आते वैदिक संस्कृत की विशेषता नहीं के बराबर रह गई है। इस खोज के अंतर्गत हम ऐतिहासिक अध्ययन के साथ साथ तुलनात्मक अध्ययन भी करते हैं। अध्ययन के ये आधार अपनी वैज्ञानिकता के कारण अधिक समीचीन है।

Friday, May 7, 2021

पद्मश्री नरेंद्र कोहली जी से साहित्य यात्रा के संपादक प्रो. कलानाथ मिश्र...


नमस्कार मित्रों 

आईए इसके पूर्व कि मैं आपको नरेन्द्र कोहली जी से सात वर्ष पहले कि एक यादगार बातचीत का अंश दिखाऊँ आपको एक संस्मरण सुना देता हूँ। 2014 की बात है, मैं दिल्ली गया हुआ था। स्वाभाविक रूप से मैंने आदरणीय कोहली जी को फोन किया। भाईसाहब मैं दिल्ली आया हूँ। उन्होंने प्रसन्नाता व्यक्त करते हुए कहा, जाओ भाई, भेंट होनी चाहिए। मैंने पूछा आपको कब सुविधा होगी? उन्होंने कहा 3 बजे के बाद ठीक रहेगा। मैं तबतक थोरा आराम भी कर लूँगा। १२ बज रहा था| मै १२.४५ तक घर से निकाल गया | जनता था की कोहली जी समय के पावन्द हैं| मैं मेट्रो से नजदीक का स्टेशन पहुंचा, मन ही मन  उनसे मिलने पर साहित्य यात्रा के लिए बातचीत करने की योजना बना ली थी। भाई आशीष कांधवे जी को पहले ही फोन कर दिया था। उन्होंने मेट्रो स्टेशन पर गाड़ी भेज दी थी। मैं सीधे आशीष जी के कार्यालय गया और वहाँ से फिर उन्हीं की गाड़ी से कोहली जी के यहाँ पहुँचा। कोहली जी की सहजता देखिये कि वे पहले से ही इन्तजार कर रहे थे। भीतर जाकर मैंने विनम्रता पूर्वक अभिवादन किया। मैं बता दूँ कि उनके सोफा का बगलवाला जो बाहु आश्रय है वह बहुच चौरा है। बहुआश्रय समझे ? (armrest) आप बातचीत के क्रम में सोफ़ा देख ही लेंगे। उन सभी बाहुआश्रय के ऊपर विभिन्न आकार का श्रीमद्भागवत गीता और महाभारत रखा था। मैं ने उनसे बातचीत के क्रम मे सवाल किया तो जाकर एक नवीन राज खुला। उन्होंने कहा कि मैं भविष्य की योजनाओं पर किसी से बात नहीं करता, पर पहली बार आपको बताता हूँ। मैं सोच रहा हूँ कि गीता पर उपन्यास लिखा जाय। मैंने कहा गीता में संवाद कहाँ है? उन्होंने कहा हाँ, यही तो समस्या है पर मैं सोच रहा हूँ। मैंने कहा इसी सोचने के क्रम मे सोफ़ा पर महाभारत और गीत आपने जमा कर रखा है| उन्होंने कहा मैं शाम को  घर में सभी को बिठाकर गीता, महाभारत पर चर्चा करता हूँ। इससे दो लाभ होता है। एक तो बच्चों में संस्कार आता  है। वे भारतीय संस्कृति से परिचित होते हैं और दूसरा यह कि मैं मन ही मन उपन्यास लिखने की योजना को लेकर मन में चलरहे विचारों को स्वरूप प्रदान करता रहता हूँ। 

दोसाल बाद 2016 मे यह उपन्यास वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ। इसबीच उपन्यास को लेकर फोन पर कई बार आदरणीय कोहली जी से बातचीत हुई। साहित्य यात्रा मे प्रकाशन के पूर्व उपन्यास का अंश भी छपा। प्रकाशन के तुरत बाद 'शरणम' डाक से मेरेपास पहुंच गया। उनदिनों मेरी पत्नी म्भीर रूप से अस्वस्थ चल रही थीं और रूबन मे भर्ती थीं। मैं सारा दिन उनके पास बैठा रहता था। मन की क्या अवस्था थी कह नहीं सकता। आशा का दीपक आहिस्ता-आहिस्ता क्षीण हो रहा था, मन में निराशा के  बादल छा रहे  थे, अवसाद भर रहा था। ऐसे में मेरे हाथ शरणम लग गया। अस्पताल में बैठकर गीता पढ नहीं सकता था| अतः शरणम पढा करता था। गीता पढने के बाद जो एक विशेष भाव मन में जगता है कुछ उसी तरह का भाव कोहली जी रचित 'शरणम' पढकर मिला। मन को शांति मिली।

आज कोहली जी हमारे बीच नहीं हैं।...

हिन्दी के मूर्धन्य साहित्यकार पद्मश्री नरेंद्र कोहली जी का जाना हिन्दी जगत में एक महाशून्य दे गया। दिनांक १७ अप्रैल २०२१ के दिन उन्होंने  अंतिम साँस ली।  मेरे लिए यह व्यक्तिगत क्षति है। मेरा पूरा परिवार शोक मे डूबा है। यह उनका स्नेह ही था कि पटना आने पर वे मेरे आवास पर अवश्य आते थे अथवा मुझे फोन कर बुलवा लेते थे। वे एक सिद्धहस्त साहित्यकार, उपन्यासकार थे। उनका बेबाकीपन, उनकी सहजता, उनका स्नेह से भरा व्यक्तित्व इस क्षण मेरे मन को अवसाद से भर रहा है। वे इस तरह एकाएक चले जाएँगे इसकी कल्पना भी नहीं थी। कालजयी कथाकार थे डॉ. नरेन्द्र कोहली। पौराणिक आख्यानों को उन्होंने आधुनिक संदर्भ में लिखकर विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया। कोहली जी आज के वैज्ञानिक युग में मानते थे कि नायक का नायकत्व आदर्शमय, प्रेरणादायी होने के साथ-साथ विश्वसनीय एवं अनुकरणीय भी होना चाहिए। इस कारण कोहली जी ने अपने उपन्यासों में राम, कृष्ण को नए मानवीय, विश्वसनीय, सामाजिक, राजनीतिक, वैज्ञानिक एवं अत्याधुनिक रूप में प्रस्तुत किया। भारतीय संस्कृति के अजस्र श्रोत को आधुनिक काल में नवीन संदर्भ में ढालकर पाठकों के लिए प्रस्तुत करना उनकी अमूल्य देन है।

राम कथा पर लिखे गए अद्वितीय उपन्यासों के लिए उन्हें आधुनिक तुलसीदास के रूप में भी स्मरण किया जाता है। वे हिंदी साहित्य के लिए अक्षय भण्डार छोर गए हैं। वे साहित्य यात्रा के परामर्शी भी थे। आधुनिक युग में इन्होंने साहित्य में आस्थावादी मूल्यों को स्वर दिया। उनका हृदय राममय था।  रामजी उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें। साहित्य यात्रा का एक विषेष अंक उनपर केन्द्रित था। यहाँ प्रस्तुत है उनका यह अविष्मरणीय बातचीत जो मैंने उनसे साहित्य यात्रा के लिए की थी। पूर्व से पूरी तैयारी तो थी नहीं फिर भी मेरे पास मोबाइल था सो  एकाएक मन मे आया की रिकार्ड कर लूँ | आशीष जी ने साथ दिया| किसी तरह बातचीत का कुछ अंश रिकार्ड हो गए| पूरी बातचीत होते होते बटरी खतम हो गया| किन्तु जो बातचीत है वह आज अमूल्य है| इस साक्षात्कार के रेकार्डिग में सहयोग के लिए मैं आधुनिक साहित्य के संपादक डा. आशीष कांधवे जी को धन्यवाद देता हूँ | आप देखें और सुनें| आनद आएगा|